Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 24

तस्माद् ॐ इत्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया: |
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम् || 24||

तस्मात् इसलिए: ॐ-ओम, पवित्र अक्षर; इति–इस प्रकार; उदाहृत्य-उच्चारण करके; यज्ञ-यज्ञ; दान-दान; तपः-तथा तप की; क्रिया:-क्रियाएँ सम्पन्न करना; प्रवर्तन्ते प्रारम्भ हैं; विधान-उक्ता-शास्त्रीय आज्ञाओं के अनुसार; सततम् सदैव; ब्रह्म-वादिनाम्-वेदों के व्याख्याता।

Translation

BG 17.24: इसलिए यज्ञ, दान और तपस्या आदि का शुभारम्भ वेदों के निर्देशानुसार 'ओम्' का उच्चारण करते हुए होता है।

Commentary

ओम् पद भगवान के निराकार रूप की एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है। यह निराकार ब्रह्म के नाम के रूप में स्वीकृत है। यह वह मूल ध्वनि है जो सृष्टि में व्याप्त रहती है। इसका शुद्ध उच्चारण खुले मुख के साथ 'आ', ओष्ठों को सिकोड़कर 'ऊ' तथा ओष्ठों को पीछे लाकर 'म' ध्वनि निकालने से होता है। इसे मांगलिक कार्यों के संपादन में अनेक वैदिक मंत्रों के आरंभ में रखा गया है।

Swami Mukundananda

17. श्रद्धा त्रय विभाग योग

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